Friday 17 June, 2011

Taken for Granted

हम अक्सर दूसरों की परेशानिया नहीं समझ पाते. तब तो बिलकुल नहीं, जब सामने वाला मितभाषी हो. हम अपनी सुविधाओं को तरजीह देते चले जाते हैं और दूसरा थककर हमसे कतराने लगता है. हम उसे मतलबी, गैरजिम्मेदार, नासमझ और न जाने क्या-क्या कह देते हैं. थोडा  ठहरकर उसके लिए सोचना, जिसे हम अजीज कहते हैं, उसकी असुविधाओं का ध्यान रखना वक़्त बर्बाद करने की तरह क्यों लगता है अक्सर?

बहुत साड़ी चीजें ऐसी ही होती हैं  जिसे हम समाज के लिए, परिवार के लिए करते रहते हैं, ये जानकर भी कि इसका हमें कुछ भी फायदा नहीं. कभी-कभी तो हम अपना ये दिखावा दूसरों पर भी थोप देते हैं, उन्हें संस्कारों की दुहाई देकर शिक्षित करने की कोशिश करते हैं. तब तो हद ही हो जाती है जब कई लोग अपना सबकुछ, अपने अजीज को भी दिखावे के लिए छोड़ने को तैयार हो जाते हैं.

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